रविवार, 22 नवंबर 2009

हमर विपरीत पद्धति 2

( पछिला पोस्टिंग़ क़ॆ बाद) ...हमर जायज शंका छलए जे एत्ते श्रम स' ई अनुवाद क' रहला अछि, त' पूछि लेबाक चाही जे एकरा छपतनि के, फेर एकरा पढतनि के? हुनका से सब नहि बुझल छनि। रिटायर क' क'बैसल छलंहु
कोनो काज नहि छल , भजार कहलनि जे बैसल छी, कियैक ने भागवतक मैथिली अनुवाद करै छी, मैथिली मे छैको नंइ। बस क' रहल छी। आब एकरा के छापत, के पढत(?) से जानथि महरानी(काली)! आब भजारक कहला पर पंडित जी रोज महीनो स' मेहनति क' रहल छथि से आर के क' सकैत अछि बिनु अखजी लोक के ? यैह तटस्थता, यैह निर्लिप्तता, यैह फलक आस बिनु केने कर्म रत रहबाक परंपरा हमरा सब (मैथिल) के आन लोक सब स' अलग करैत अछि, विशिष्ट , निविष्ट आ अनुकरणीय बनबैत रहल अछि। ई दुर्भाग्य जे हुनका मुइलाक बाद जे सासुर गेलंहु त' एक दुपहरिया पछवाक तोड पर वैह मोती सनक आखर मे कैल अनुवाद भरि आँगन उडियाइत देखलियै। तेन किम् ! बुढा त' अपन काज क' क' चल गेला, आब लोक ओकरा संगे जे करय !

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