बुधवार, 16 सितंबर 2009

लेखक आ लेखनक अनजानल पक्षपक्ष

एक टा निमंत्रण पत्र पर मुंशी प्रेमचन्द तुकाबन्दी(तुकबन्दी) केने रहथि_'सब के लिये निमंत्रण अपना जन मानें/ और पधारें इसको अपना ही घर मानें।' अहिना स्व। किरण जीक पांती भेटल__"किंतु मैथिली का तो मैं ही एक मात्र आधार/ मेरे बल पर ही अब तक है इसमे जीवन का संचार" । यात्री बाबा, माँ मिथिला के अंतिम प्रणाम कैक बेर केने हेता, कैक बेर ओइ धूल_धूसरित,षडयंत्र स' परिपूरित, कैक युगक जडताक मारल मिथिला घूरि क' नहि जाइ, हमरे जेकाँ सोचने हेताहे__मुदा लिखै छथि__"यश_अपयश हो,लाभ_हानि हो,सुख हो अथवा शोक/सभ स' पहिने मोन पडैछ अपने भूमिक लोक।" अपन भूमि...अपन लोक...ककरा ई लोकनि कहथिन ? हमरा त' होइत अछि जे लेखक कवि लोकनिक बारे मे ओहेन बात जनाबी जे ककरो बूझल नहि छैक। मुदा से आब फेर कहियो।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें